Monday 31 October 2016

बलि प्रतिपदा

आज का दिन देश के कई हिस्सों में बलि प्रतिपदा के रूप में मनाया जाता हैं. यह राक्षसों के राजा महाराज बलि का दिव्य सम्मान हैं. चूँकि लोग ऐसा सामान्यरूप से सोचते हैं की भगवान् उनका कुल देखकर उनपर प्रसन्न होंगे। लेकिन यहाँ राक्षसकुल में उत्पन्न होने वाले अपने भक्त के भक्ति की उत्कटता देखकर भगवान् स्वयं उसके द्वारपाल हो गए. देखिये भक्त ने त्रिलोक की सत्ता भगवान को अर्पण की तो भगवान् ने स्वयं को ही भक्त को दे दिया। भक्ति पंथ अत्यंत दुर्गम हैं और इसमें छोटे सौदे करनेवाले तो फिसल ही जाते हैं.

तुलसीदासजी द्वारा विरचित दोहावली से निम्नलिखित तीन दोहे लिए हैं. आप देखना चाहो तो पृष्ठ क्रमांक १११ पर देखे।

बिनु प्रपंच छल भीख भलि
लहिअ न दिएँ कलेस
बावन बलि सों छल कियो
दियो उचित उपदेस

बिना छल कपट के मिलने वाली भीख ही उत्तम हैं, किसी को क्लेश पहुँचाकर भीख नहीं लेनी चाहिए। भगवान ने वामनरूप धरकर बलि से छल किया और इसी बहाने सब को उपदेश दिया (की छल करना बुरा हैं, छल करने के कारण ही मुझे पाताल में बलि का द्वारपाल बनना पड़ा हैं)

भलो भले सों छल किएँ
जनम कनोडो होइ
श्रीपति सर तुलसी लसति
बलि बावन गति सोई

भला आदमी किसी भले आदमी से यदि छल कर बैठता हैं तो उसे फिर जन्म भर उससे दबकर रहना पड़ता हैं. भगवान् लक्ष्मीपति ने वृंदा से छल किया था इससे वह तुलसी के रूप में भगवान् के सर पर विराजमान रहती हैं और भगवान् वामनजी ने राजा बलि से छल किया तो उनकी भी वही गति हुई (उन्हें उसका द्वारपाल बनकर रहना पड़ा)

बिबुध काज बावन बलिहि
छलो भलो जिय जानि
प्रभुता तजि बस भे तदपि
मन की गई न गलानि

भगवान् वामनजी ने अपने मन में अच्छा समझकर ही देवताओं के कार्य के लिए बलि को छला, फिर अपना स्वामित्व छोड़कर उसके वश में भी हो गए तो भी [छल करने के कारण] उनके मन की ग्लानि नहीं मिटी।

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